(३८) तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह.
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह|
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह||
अर्थ: जिस जगह आपके जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हों, जहाँ लोगों की आँखों में आपके लिए प्रेम या स्नेह ना हो, वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ धन की बारिश ही क्यों न हो रही हो|
इसका तात्पर्य है कि जिस स्थान पर हमारे जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हैं अर्थात हमारी उपेक्षा की जाती है । ऐसे स्थान पर हमें भूलकर भी नहीं जाना चाहिए चाहे उस स्थान पर जाने से कित ना ही लाभ क्यों न हो रहा हो । ऐसी जगह हमारा अनादर हो सकता है जिससे हमारा नुकसान हो सकता है।
जीने की कला- इस दोहे के माध्यम से हमें सीखने को मिलता है कि हमें किस जगह जाना चाहिए उसका विचार पूर्व में करने के उपरान्त ही जाना उचित है ।अन्यथा इससे हमें हानि हो सकती है ।
जय राम जी की
(३८) तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह.
आवत ही हरषै नहीं नैनन नहीं सनेह|
तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह||
इसका तात्पर्य है कि जिस स्थान पर हमारे जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हैं अर्थात हमारी उपेक्षा की जाती है । ऐसे स्थान पर हमें भूलकर भी नहीं जाना चाहिए चाहे उस स्थान पर जाने से कित ना ही लाभ क्यों न हो रहा हो । ऐसी जगह हमारा अनादर हो सकता है जिससे हमारा नुकसान हो सकता है।
जीने की कला- इस दोहे के माध्यम से हमें सीखने को मिलता है कि हमें किस जगह जाना चाहिए उसका विचार पूर्व में करने के उपरान्त ही जाना उचित है ।अन्यथा इससे हमें हानि हो सकती है ।
जय राम जी की