रविवार, 30 सितंबर 2018

(३०) पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं



  कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं।

 पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥

भावार्थ:-(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा 

किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता।

        इसका तात्पर्य है कि  पराधीन अर्थात दूसरों के आधीन रहने वाले को

 सपने में भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता।  पराधीनता मनुष्य के लिए एक 

अभिशाप है।  पराधीन व्यक्ति हमेशा अपने दुखों का रोना रोता  रहता है 

और स्वयं अक्षम होकर ईश्वर को दोष लगाता  है परन्तु ईश्वर उसी की 

सहायता करता है जो स्वयं अपनी सहायता कर सकता है।    व्यक्ति के 

पास सभी भौतिक संसाधन , सुख सुविधाएं होने  पर भी यदि वह स्वतंत्र 

नहीं है तो यह सब उसके लिए व्यर्थ हैं।  इस संसार में पराधीनता पाप है 

जबकि स्वतंत्रता पुण्य है। 

अतः हमें दूसरों के आधीन न रहते हुए जो हम कर सकते हैं करना 

चाहिए।  यदि हम स्वयं की दम पर कार्य करते हैं तो वह कार्य सफल होने 

के बाद हमारा आत्मविश्वास बढ़ता है। इसके विपरीत दूसरों की दम पर 

किये गए कार्य  निराशा को बढ़ाते हैं। इस प्रकार गोस्वामी जी द्वारा सही

 कहा गया है  कि  पराधीन सपनेहु सुख नाहीं। 


                          
                              जय राम जी की
                                                  

                             ( प्रताप भानु शर्मा )




शुक्रवार, 28 सितंबर 2018


(२९) पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।

पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।
जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।।

अर्थात -दूसरों को उपदेश देना तो बहुत आसान है लेकिन स्वयं उन उपदेशों पर अमल करना कठिन। वर्तमान समय में उपदेशक अधिक है, अमलकर्ता नहीं। यदि व्यक्ति स्वयं आदर्शों का पालन करने लग जाए तो उसे उपदेश देनेकी ज़रूरत नहीं होगी।

    इसका तात्पर्य है कि दूसरों को उपदेश देना सरल है परन्तु उसके अनुसार पालन करना बहुत कठिन है। आज के सामाजिक परिवेश में हमें ऐसे व्यक्ति बहुत मिलते हैं जो हमें कुछ न कुछ सलाह देते रहते हैं चाहे वह बातचीत के रूप में हो अथवा भाषण के रूप में हो सकती है।  परन्तु उनके द्वारा कही गई बातों का प्रभाव तभी पड़ता है जब वे स्वयं अपने द्वारा कही गई बातों का अनुशरण करते हैं।  

   अतः कहा गया है कि दूसरों को सलाह देने के पूर्व स्वयं का आंकलन अवश्य करना चाहिए कि हम अपने द्वारा कही गई बातों का पालन करते हैं अथवा नहीं।  यदि व्यक्ति स्वयं अपने द्वारा कही गई आदर्शों की बात का पालन करता है तो उसे उपदेश देने की आवश्यकता नहीं होगी क्योंकि उससे संलग्न सभी व्यक्ति उसके द्वारा कहने अथवा न कहने पर भी  आदर्शों का पालन करते रहेंगे। 


                                                जय राम जी की 
                                              (प्रताप भानु शर्मा )
  

रविवार, 23 सितंबर 2018

(२८) दया धर्म का मूल  है पाप मूल अभिमान |


                     

दया धर्म का मूल  है पाप मूल अभिमान |
        तुलसी दया न छांड़िए ,जब लग घट में प्राण ||

अर्थ: गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि मनुष्य को दया कभी नहीं छोड़नी चाहिए क्योंकि दया ही धर्म का मूल है और इसके विपरीत अहंकार समस्त पापों की जड़ होता है|

     इसका तात्पर्य है कि मनुष्य में दया भाव होना अति आवशयक है , जिस व्यक्ति में दया नहीं होती वह एक मुर्दे के समान है।  जिस व्यक्ति के मन में दयाभाव होता है वह व्यक्ति धर्म की ओर  अग्रसर होता है जिससे वह   जीवन में उत्तरोत्तर प्रगति कर सुखी जीवन व्यतीत करता है।  इसके विपरीत अहंकार अर्थात घमंड समस्त पापों की जड़ है , जब व्यक्ति को अहंकार हो जाता है तब समझ लेना चाहिए कि इस अहंकार रुपी जड़ से पाप रुपी पौधा पनपने लगा है जो कि  धीरे धीरे बढ़ा होकर उस व्यक्ति का विनाश करने वाला सिद्ध होता  है।  
     अतः जब तक हमारे शरीर में प्राण हैं, हमें दया नहीं छोड़ना चाहिए।  ईश्वर के द्वारा रचित इस संसार के समस्त प्राणियों पर दया भाव रखना ही धर्म का पालन है। 

                             जय राम जी की 
                            (प्रताप भानु शर्मा) 


शनिवार, 22 सितंबर 2018


(२७) तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग
तुलसी इस संसार में, भांति भांति के लोग।
सबसे हस मिल बोलिए, नदी नाव संजोग॥

अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, इस संसार में तरह-तरह के लोग रहते हैं. आप सबसे हँस कर मिलो और बोलो जैसे नाव नदी से संयोग कर के पार लगती है वैसे आप भी इस भव सागर को पार कर लो.
          इसका तात्पर्य है कि प्रभु के द्वारा रचित इस संसार में हर प्रकार के लोग रहते हैं  अर्थात सभी लोग एक समान नहीं हैं , सभी के विचार , बुद्धि ,तर्कशक्ति एक समान नहीं  होती। सभी की सोच अलग होती है , यह आवश्यक नहीं कि जैसा आप सोचते हैं , दूसरा भी उसी प्रकार की सोच रखता  है।  अतः हमें  सभी लोगों से  प्रसन्नता पूर्वक मिल कर हँसते बोलते रहना  चाहिए।   इस सम्बन्ध में गोस्वामी जी , एक उदहारण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि जिस प्रकार नदी में  लहरों  को  परास्त करती हुई नाव चलती है इसी प्रकार इस संसार  रुपी सागर  में विभिन्न नदी रूपी व्यक्ति मिलते हैं जिसमें नाव रुपी  आपको  व्यक्तियों से सामंजस्य स्थापित करते हुए इस संसार रुपी सागर को पार करना है।  
      अतः  सभी विभिन्न  प्रकार के लोगों के साथ रहते हुए उनसे हँसकर मिल बोल कर इस जीवन को प्रसन्नता पूर्वक व्यतीत किया जा सकता है।            

                                               जय राम जी की   
                                             (प्रताप भानु शर्मा )

गुरुवार, 20 सितंबर 2018


    (२६)  तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलई सहाइ  



तुलसी जसि भवितव्यता तैसी मिलई सहाइ
आपुनु आवइ ताहि पहिं ताहि तहाॅ ले जाइ।

अर्थात -जैसी भवितव्यता (होनहार ) होती है वैसी हीं सहायता मिलती है। या तो वह सहायता अपने आप स्वयं आ जाती है या वह व्यक्ति  को वहाॅ ले जाती है।

         इसका तात्पर्य है कि हमारे साथ जो भी होना होता है हमें उसी प्रकार की सहायता अर्थात उसी से समबन्धित सहयोग अपने आप मिल जाता है।  यह सहयोग, किसी व्यक्ति के रूप में अथवा परिस्थिति के रूप में हमें उसी घटना की तरफ खींचकर  ले जाता है जो हमारे साथ घटित होना है।  हमारे द्वारा किये गए  पिछले कई जन्मों के  कर्मों के निर्धारण अनुसार होनहार हमारे लिए अच्छी भी हो सकती है और हमारे लिए हानिकारक भी।  यदि हमें किसी कार्य को करने से लाभ होना है तो उसी प्रकार के सहयोगी हमें अपने आप मिल जाते हैं।  इसी प्रकार यदि हानि होना है तो भी  इस   प्रकार की परिस्थितयां अपने आप निर्मित होती हैं जो कि हम समझ नहीं सकते हैं। 

      यदि  हम अच्छी विचारधारा के साथ  सद्कर्म करते रहेंगे तो हमारे साथ होनी अच्छी ही घटित होगी जिसके लिए सहायता अपने आप मिलती जाएगी।  

                                           जय राम जी की 
                                         (प्रताप भानु शर्मा )



सोमवार, 17 सितंबर 2018

          (२५) केवल गुणों  को ही ग्रहण करें 
               
               जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार ।
               संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार॥
भावार्थ-  विधाता ने इस जड़-चेतन विश्व को गुण-दोषमय रचा है, किन्तु संत रूपी हंस दोष रूपी जल को छोड़कर  गुण रूपी दूध को ही ग्रहण करते हैं॥

                 इसका तात्पर्य है कि  परम पिता परमेश्वर द्वारा गुण-दोष के साथ ही जड़ एवं चेतन (स्थिर एवं चलायमान) को  सम्मिलित कर इस संसार की रचना की गयी है। अर्थात इस संसार में जो भी सजीव अथवा निर्जीव हैं सभी में गुण एवम दोष विद्यमान हैं।  बुद्धिमान वही है जो दोषों पर ध्यान न देते हुए  केवल गुण ही ग्रहण करता है।  उदाहरण स्वरूप मोबाइल  इंटरनेट का उपयोग आज के समय में बहुतायत हो रहा  है , यह भी गुण एवं दोषों से परिपूर्ण है परन्तु इसके दोषों को दृष्टिगत न रखते हुए केवल  गुणों का ही उपयोग किया जाये तो इसी में व्यक्ति की भलाई है।  

         अतः जिस प्रकार हंस को दूध पिलाने पर वह केवल दूध रूपी गुण को ग्रहण कर लेता है जबकि दोष रुपी जल को छोड़ देता है उसी प्रकार हमें भी दोषो को छोड़ते हुए केवल गुण ग्रहण करना चाहिए। इसी में हमारी भलाई है।  

                                   जय राम जी की 
                                   प्रताप भानु शर्मा 



गुरुवार, 13 सितंबर 2018



(२४ ) विपत्ति के साथी 
तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक।
साहस सुकृति सुसत्यव्रत, राम भरोसे एक॥
अर्थ : तुलसीदास जी कहते हैं, विपत्ति में अर्थात मुश्किल वक्त में ये चीजें मनुष्य का साथ देती है. ज्ञान, विनम्रता पूर्वक व्यवहार, विवेक, साहस, अच्छे कर्म, सत्य और राम ( भगवान ) का नाम. 
        इसका तात्पर्य है कि विपत्ति अर्थात मुश्किल का समय, जो की हर व्यक्ति के जीवन में आ सकता है, इस समय के साथी के रूप में हमारा ज्ञान  जो कि हमें पुस्तकों से अथवा सत्संग से प्राप्त होता है काम आता है।  इस समय में हमें विनम्रता पूर्वक व्यव्हार करना चाहिए,  एवं  कोई भी निर्णय लेने से पूर्व विवेक का उपयोग आवश्यक है।  इन सबके साथ हमें सत्य पर अटल रहकर अच्छे कार्य करते रहना चाहिए एवं अपने साहस को बनाये रखना चाहिए क्योकि यदि साहस नहीं होगा तो आप  विपत्ति के समय में निराशा में जा सकते हैं। समय परिवर्तनशील है , विपत्ति का समय भी इन साथियों  के सहयोग से निकल जाता है परन्तु इसके साथ-साथ सबसे महत्वपूर्ण बात गोस्वामी जी द्वारा इस चौपाई के माध्यम से हमें बताई गई है कि इन सब साथियो के साथ ही केवल राम अर्थात परमात्मा पर बिश्वास रहना अति आवश्यक है। 
     अतः  विपत्ति के समय पर इस चौपाई को ध्यान में रखकर कार्य किया जावे तो विपत्ति आपको किसी भी प्रकार से कष्ट न पहुंचाकर दूर खड़ी दिखाई देगी। 
                                                                                                                                                                      जय राम जी की                                                                                                                                                                                                 (प्रताप भानु शर्मा )
                                    

रविवार, 9 सितंबर 2018

               (२३) मुखिया मुखु सो चाहिऐ    

मुखिया मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक |

पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक ||

अर्थ: तुलसीदास जी कहते हैं कि मुखिया मुख के समान होना चाहिए जो खाने-पीने को तो अकेला है, लेकिन विवेकपूर्वक सब अंगों का पालन-पोषण करता है |
     इसका तात्पर्य है की मुखिया अर्थात किसी भी देश,प्रदेश,संस्थान,कार्यालय, परिवार इत्यादि का वह व्यक्ति जिस पर उसकी पूर्ण जिम्मेदारी है, उसको मुख अर्थात मुंह के समान होना चाहिए।  जिस प्रकार केवल एक मुख के द्वारा हम खाना पीना करते हैं जो कि हमारे पूरे शरीर की क्रियाओं को संचालित करने हेतु आवश्यकतानुसार ऊर्जा प्रसारित करता है। यहाँ इस बात पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि मुख द्वारा विवेक के अनुसार हमारे शरीर के अंगो का पालन पोषण होता है। मुखिया के आधीन आने वाले सभी सदस्य उसके अंग होते हैं जिनका पालन पोषण एवं उनके हितों की रक्षा विवेक पूर्वक करना मुखिया का कार्य होना चाहिए। सभी पदार्थ खाद्य योग्य  एवं सभी पेय पदार्थ पेय योग्य नहीं हो सकते।  अतः मुखिया को इस बात का ध्यान रखने की आवश्यकता है की वह योग्य पदार्थों का ही सेवन करे।  जिससे उससे संलग्न सदस्य रुपी अंगों का समुचित विकास हो सके।  इसी प्रकार मुखिया के द्वारा कमाया गया धन  भी यदि योग्य है तो ही इससे  सदस्यों के जीवन को आनंदमय बनाया जा  सकता है।  
         अतः गोस्वामी जी द्वारा बताये गए   मुखिया के  गुण जिस मुखिया में होते हैं उससे संलग्न सभी सदस्यों की उत्तरोत्तर प्रगति को कोई नहीं रोक सकता।  

                                                  जय राम जी की   
                                                (प्रताप भानु शर्मा )
     

गुरुवार, 6 सितंबर 2018




(२२)  विधि विपरीत भलाई नाहीं

इहां संभु असमन अनुमाना, दच्छ सुता कहुं नहिं कल्याना
मोरेहु कहें न संसय जाहीं, विधि विपरीत भलाई नाहीं

भावार्थ - इधर शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्ष कन्या सती का कल्याण नहीं दिख रहा है क्योंकि जब मेरे समझाने से भी संदेह दूर नहीं होता तब ऐसा लगता है कि विधि  ही उनके  विपरीत हैं इसलिए सती का कुशल नहीं है।
    तात्पर्य है कि  जब विधि अर्थात कार्य करने की विधि विपरीत हो जाती है तो समझ जाना चाहिए कि भला (अच्छा) होने वाला नहीं है। यदि हम कोई कार्य सम्पन्न करते हैं जिसकी विधि उसकी प्रकृति के अनुसार पूर्व से ही निर्धारित है,  परन्तु हम उस कार्य को विधि अनुसार न करके विपरीत विधि से करते हैं तो उसका परिणाम अच्छा प्राप्त  हो ही नहीं सकता। इसके उदहारण हमारे जीवन में भी  देखे जा सकते हैं।  
    इस चौपाई से एक सन्देश यह भी प्राप्त होता है कि हमें संदेह करना चाहिए परन्तु संदेह होने पर विवेक से काम लेना चाहिए।  संदेह होने पर तुरंत निर्णय लेकर किया गया कार्य हमारे जीवन को नष्ट कर देता है।  अतः विवेक पूर्ण  निर्णय लेकर संदेह को दूर किया जा सकता है। 
          अतः विधि के विपरीत कार्य न कर , और संदेह होने पर विवेक से काम लेने पर आप इस चौपाई के  अर्थ को सार्थक करें। 



                                                 जय राम जी की 
                                           पं.  प्रताप भानु शर्मा 


                               
                                                     
            




बुधवार, 5 सितंबर 2018


(२१)शिक्षक दिवस (०५ सितम्बर)



 बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि।
महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।
 
भावार्थ:- मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वंदना करता हूं, जो कृपा के समुद्र और नर रूप में श्री हरि ही हैं और जिनके वचन महामोह रूपी घने अंधकार का नाश करने के लिए सूर्य किरणों के समूह हैं॥5॥
          इसका तात्पर्य है कि गुरु ही एक ऐसा व्यक्तित्व है जो हमारे अज्ञान रुपी अंधकार को नष्ट कर ज्ञान रुपी ज्योति को  हमारे ह्रदय रुपी पटल पर प्रकाशमान करता है।  गुरु हमारे जीवन में एक पथ प्रदर्शक के रूप में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त करता है।  
        
     गुरु बिन ज्ञान न उपजै, गुरु बिन मिलै न मोष।
     गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मैटैं न दोष।।

    कबीर दास जि कहते है – हे सांसारिक प्राणीयों। बिना गुरु के ज्ञान का मिलना असंभव है। तब टतक मनुष्य अज्ञान रुपी अंधकार मे भटकता हुआ मायारूपी सांसारिक बन्धनो मे जकडा राहता है जब तक कि गुरु कि कृपा नहीं प्राप्तहोती।
मोक्ष रुपी मार्ग दिखलाने वाले गुरु हैं। बिना गुरु के सत्य एवम् असत्य का ज्ञान नही होता। उचित और अनुचित के भेद का ज्ञान नहीं होता फिर मोक्ष कैसे प्राप्त होगा ? अतः गुरु कि शरण मे जाओ। गुरु ही सच्ची राह दिखाएंगे।
           आज शिक्षक दिवस के अवसर पर समस्त गुरु के चरणों में कोटि कोटि प्रणाम। 
                                                                         (प्रताप भानु शर्मा)