रविवार, 31 जुलाई 2022

(64) काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।

  • काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।                              बिनय न मान खगेस सुनु  डाटेहिं पइ नव नीच।। 


श्रीरामचरितमानस में काकभुशुण्डिजी कहते हैं : हे गरुड़जी! चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है वैसे ही नयी-नयी नीचता करने वाले को तुरन्त डाँट देना चाहिये, विनय करने से वह नहीं समझेगा | 
इसका तात्पर्य है कि आज के परिवेश में हम कुछ इस प्रकार के व्यक्तियों के संपर्क में आते हैं जो निकृष्ट व्यवहार करते है उनके द्वारा प्रथम बार निकृष्ट व्यवहार किए जाने  पर  तत्क्षण उन्हें  डांट देना चाहिए जिससे वह पुनः इस प्रकार का व्यवहार न कर सके  इसी में ही हमारी भलाई है    क्योंकि इस प्रकार के व्यक्ति प्रेम की भाषा नहीं समझेंगे उन्हें डांटना आवश्यक है |
जीने की कला= इससे हमें सीख मिलती है कि हमें इस प्रकार के व्यक्ति के साथ व्यवहार में परिवर्तन आवश्यक है अन्यथा हम आगे परेशानी में पड़ सकते हैं | 

              जय राम जी की
                           
                       पंडित प्रताप भानु शर्मा


बुधवार, 13 जुलाई 2022

(63) गुरु की महिमा






बंदऊं गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा॥
अमिअ मूरिमय चूरन चारू। समन सकल
    भव रुज परिवारू॥
 

भावार्थ:- मैं गुरु महाराज के चरण कमलों की रज की वंदना करता हूं, जो सुरुचि  अर्थात सुंदर स्वाद , सुगंध तथा अनुराग रूपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुंदर चूर्ण है, जो संपूर्ण भव रोगों के परिवार को नाश करने वाला है॥

     
* सुकृति संभु तन बिमल बिभूती। मंजुल मंगल मोद प्रसूती॥
जन मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएं तिलक गुन गन बस करनी॥

भावार्थ:- वह चरण-रज शिव जी के शरीर पर सुशोभित निर्मल भभूति के समान है, जो कि परम कल्याणकारी और आनन्द को प्रदान करने वाली है। उस चरण-रज से मन रूपी दर्पण की मलीनता दूर हो जाती है और जिसके तिलक लगाने से प्रकृति के सभी गुण वश में हो जाते है।

श्री गुर पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिब्य दृष्टि हियँ होती॥
दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू॥ 

भावार्थ:- श्री गुरु जी के चरणों के नख प्रकाशित मणियों के समान है, जिनके स्मरण मात्र से ही हृदय में ज्ञान रुपी दिव्य प्रकाश उत्पन्न हो जाता है। उस प्रकाश से अज्ञान रूपी अन्धकार नष्ट हो जाता है, वह मनुष्य बड़े भाग्यशाली होते हैं जिनके हृदय में वह दिव्य प्रकाश प्रवेश कर जाता है। 


उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के॥
सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥ 

भावार्थ:- उस प्रकाश से हृदय के दिव्य नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि का दुःख रुपी अन्धकार मिट जाता हैं। उस प्रकाश से हृदय रूपी खान में छिपे हुए श्री रामचरित्र रूपी मणि और मांणिक स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। 



                      जय गुरुदेव 

                                          पंडित प्रतापभानु शर्मा