गुरुवार, 29 अप्रैल 2021

(57)जहाँ सुमति तहँ संपति नाना ।


  सुमति कुमति सब कें उर रहहीं ।
  नाथ पुरान निगम अस कहहीं ॥
  जहाँ सुमति तहँ संपति नाना ।
  जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ||

अर्थ- हे नाथ! पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है, जहाँ सुबुद्धि है, वहाँ नाना प्रकार की संपदाएँ (सुख की स्थिति) रहती हैं और जहाँ कुबुद्धि है वहाँ परिणाम में विपत्ति (दुःख) ही रहती है ॥3॥

  इसका तात्पर्य है कि अच्छी बुद्धि अर्थात अच्छे विचार और खोटी बुद्धि अर्थात ख़राब  विचार सभी के मन में होते हैं परन्तु जिसके मन में अच्छे विचार होते हैं वह सही समय पर सही निर्णय लेकर अपना कार्य सिद्ध कर लेता है जिससे उसका जीवन समृद्ध हो जाता है | इसके विपरीत जिसकी बुद्धि खोटी अर्थात ख़राब विचारों बाली होती है वह अपने हित को अहित और शत्रु को मित्र मानने लगता है| निर्णय लेने में गलती करता है जिससे उसे हानि का सामना करना पड़ता है और उसका जीवन विपत्तियों से घिर जाता है |

जीवन जीने की कला -
  इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें सदैव अच्छे विचार रखना चाहिए जिससे हमारा मन निर्मल और तनावमुक्त रहेगा और हम किसी भी क्षेत्र में सफल रहेंगे जिससे आर्थिक रूप से भी समृद्ध बनेंगे
जय राम जी की
                                पंडित प्रताप भानु शर्मा 


सोमवार, 26 अप्रैल 2021

(56) अहिंसा परम धर्म है |

     परम धर्म श्रुति विदित अहिंसा |

    पर निंदा सम अघ न गरीसा |

अर्थ- वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना गया है और पर निंदा के समान घोर पाप नहीं है |

     श्री रामचरितमानस की इस चौपाई में गोस्वामी जी ने धर्म की परिभाषा बताई है जिसके अनुसार अहिंसा परम धर्म है और इसके विपरीत दूसरे की निंदा करना जो कि एक हिंसा का ही रूप है उसे भारी पाप माना गया है, क्योंकि पर निंदा शब्दों द्वारा की हुई हिंसा है | मन, वचन और काया से हिंसा का त्याग ही अहिंसा कहलाता है | महावीर स्वामी ने भी अहिंसा को परम धर्म मानते हुए " अहिंसा परमो धर्म: का सन्देश दिया |

श्रीमद भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा "अहिंसा परमो धर्मः धर्म हिंसा तथैव च: ”

इस श्लोक के अनुसार अहिंसा ही मनुष्य का परम धर्म हैं और जब जब धर्म पर आंच आये तो उस धर्म की रक्षा करने के लिए की गई हिंसा उससे भी बड़ा धर्म हैं। यानि हमें हमेशा अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए लकिन अगर हमारे धर्म पर और राष्ट्र पर कोई आंच आती है तो हमें अहिंसा का मार्ग त्याग कर हिंसा का रास्ता अपनाना  चाहिए।  क्योंकि धर्म की रक्षा की लिए की गई हिंसा ही सबसे बड़ा धर्म हैं। जैसे हम अहिंसा के पुजारी है लकिन अगर कोई हमारे परिवार को हानि पहुंचाने की कोशिश करता है तो उसके लिए की गई हिंसा सबसे बड़ा धर्म हैं। वैसा ही हमारे राष्ट्र के लिए हैं।

जीने की कला - इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें अहिंसा का मार्ग अपनाना चाहिए और किसी की निंदा करने से बचना चाहिए | यदि हम निंदा करने से बचेंगे चाहे वह पीठ पीछे हो या सामने, तो हम व्यर्थ के विवाद और अकारण ही शत्रुता  से बचे रहेंगे | इसके विपरीत निंदा करने वाले दूसरों के मन को कष्ट पंहुचाकर अकारण ही शत्रुता मोल लेते हैं और ऐसे व्यक्तियों का समाज में भी सम्मान नहीं होता |

जय राम जी की

            पंडित प्रतापभानु शर्मा 


शनिवार, 24 अप्रैल 2021

(55)निर्मल मन जन सो मोहि पावा

 

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।   मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥

अर्थ -जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छल-छिद्र नहीं सुहाते।
 इसका तात्पर्य है कि जिसका मन निर्मल अर्थात निर्विकार होता है और उसके मन में किसी के प्रति कपट भाव नहीं रखते हुए छलावा नहीं करता अर्थात उसका व्यवहार सदैव सच्चा रहता है, इस प्रकार के व्यक्ति उस परम पिता परमात्मा को अत्यंत प्रिय होते हैं और उन पर परमात्मा की विशेष कृपा बनी रहती है, उनकी सभी मनोकामनायें परम पिता परमात्मा की कृपा से पूर्ण होती हैं | 
जीने की कला- इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें अपना मन निर्मल रखना चाहिए इससे चरित्र भी स्वच्छ रहेगा और व्यवहार में भी सरलता आएगी जिससे हम परम पिता परमात्मा के कृपा पात्र तो बनेंगे ही जिससे हमारा जीवन सदैव प्रकाशित रहेगा |
जय राम जी की
                    पंडित प्रताप भानु शर्मा 

गुरुवार, 22 अप्रैल 2021

(54)जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है वह उसे अवश्य मिलता है

 जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥'

अर्थ - जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है वह उसे अवश्य मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं है |

       इसका  तात्पर्य है कि यदि हमारा किसी के प्रति सच्चा स्नेह होता है तो वह हमें अवश्य ही मिलता है | यहाँ सच्चे स्नेह से तात्पर्य वासना रहित आत्मिक आकर्षण से उत्पन्न स्नेह से है जो कि एक अलौकिक प्रेम है और इसमें उस परम पिता परमात्मा की इच्छा भी समाहित है,

यदि इस प्रकार का स्नेह होता है तो वह अवश्य ही प्राप्त होता है |

जीने की कला - इससे हमें सीख मिलती है कि आज के समय में वासना पूर्ण आकर्षण से दूर रहकर यदि सच्चा स्नेह किया जाता है तो वह हमें अवश्य ही प्राप्त होता है जिसमें उस परम पिता परमात्मा की इच्छा भी सम्मिलित रहती है |

जय राम जी की

                      पंडित प्रताप भानु शर्मा 

सोमवार, 19 अप्रैल 2021

(53)परहित बस जिन्ह के मन माहीं।

परहित बस जिन्ह के मन माहीं।

तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीं॥

अर्थ- जिनके मन में दूसरे का हित बसता है (समाया रहता है), उनके लिए जगत्‌ में कुछ भी (कोई भी गति) दुर्लभ नहीं है। 

   इसका तात्पर्य है कि जिस व्यक्ति को दूसरे की सहायता करने की इच्छा रहती है, वह दूसरों के हित करने के बारे में ही विचार करता है, ऐसे व्यक्ति को इस संसार में कुछ भी कठिन नहीं है| आज के सामाजिक परिवेश में भी ऐसे व्यक्ति आपको देखने मिल जावेगे जो अपनी चिंता न करते हुए दूसरों की सहायता करते हैं | अभी कोरोना काल चल रहा है, हमारे देश में त्राहि त्राहि मची हुई है प्रतिदिन ढाई लाख मरीज बढ़ रहे हैं, इन मरीजों की सहायता के लिए डॉक्टर,नर्स सभी रात दिन कार्य कर रहे हैं | कई सामाजिक संगठन भी सहायतार्थ कार्य में संलग्न हैं | श्री रामचरित मानस की यह चौपाई उनके लिए प्रेरणा दायक और सार्थक सिद्ध होती है |

जीने की कला - इस चौपाई के माध्यम से हमें यह सीख मिलती है कि हमें सदैव दूसरों के हित के कार्य करना चाहिए | यदि हम इस प्रकार के कार्य करते हैं तो हमारे  द्वारा करी गईं कल्पनाये अवश्य ही साकार होती हैं | इसमें कोई दो राय नहीं है |

        जय राम जी की 

         पंडित प्रताप भानु शर्मा 


शनिवार, 17 अप्रैल 2021

(52)समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं,

 

समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं,

 रबि पावक सुरसरि की नाईं



अर्थ - गोस्वामी जी कहते हैं कि जो समर्थ  है उनका हर काम सही उनका दोष नहीं माना जाता।जैसे सूर्य ,अग्नि और गंगा का दोष नहीं माना जाता

व्याख्या -इसका सीधा तात्पर्य है कि जो सामर्थ्य वान ,सशक्त है उनका हर काम सही है अर्थात उनके द्वारा गलत करने पर भी उनका दोष नहीं माना जाता।जैसे सूर्य ,अग्नि और गंगा का दोष नहीं माना जाता । परन्तु यहाँ गोस्वामी जी द्वारा जो भाव प्रकट किया गया है उसमें समर्थ (सम +अर्थ ) से तात्पर्य उनसे है जिन्होंने अपने कर्म को स्वार्थ से अलग कर लिया है, जिनके कर्म सभी के लिए समान हैं एवं निर्दोष हैं | जिसमे इस प्रकार के गुण हैं वही समर्थ कहलाने योग्य है और उसी के लिए गलत करने पर भी दोषी नहीं ठहराया जा सकता |

जीवन जीने क़ी कला - इसके माध्यम से हमें सीख मिलती है कि यदि हम अपने द्वारा किये गए कर्मों को निःस्वार्थ भाव से कर सकते हैं तब ही समर्थ कहलाने योग्य हैं अन्यथा सभी असमर्थ हैं | समर्थ तो वह परम पिता परमात्मा ही है जिसके द्वारा किये गए सभी कर्मों को दोष व्याप्त नहीं हो सकता |

                जय राम जी की
                                      

                           पं• प्रताप भानु शर्मा 

बुधवार, 14 अप्रैल 2021

(51)बचन वेष क्या जानिए, मनमलीन नर नारि।

बचन वेष क्या जानिएमनमलीन नर नारि।            सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।

 अर्थ -वाणी और वेश से किसी मन के मैले स्त्री या पुरुष को जानना संभव नहीं है। सूपनखा, मारीचि, रावण और पूतना ने सुंदर वेश धरे पर उनकी नीयत फिर भी मलीन ही थी |

इस चौपाई के माध्यम से  तुलसीदास जी कहना चाहते हैं कि किसी व्यक्ति को उसके मीठे वचन और पहनावे से आप उसकी नियत के बारे में नहीं जान सकते अर्थात यदि कोई व्यक्ति आप से बहुत अच्छे तरीके से बात करता है और उसकी ड्रेस भी बहुत महंगी है जो आपको प्रभावित कर सकती है परन्तु हो सकता है कि उसका उद्देश्य आपको हानि पहुंचाने का हो |
जीने क़ी कला - इससे हमें सीखने को मिलता है कि किसी भी व्यक्ति के बोलने और दिखने पर न जाकर उसके उद्देश्य के बारे में पहचान करके ही व्यवहार किया जावे तो ही उचित होगा |

जय राम जी की
                        पं• प्रताप भानु शर्मा 

रविवार, 11 अप्रैल 2021

(50)ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है |

आगे कह मृदु बचन बनाई |   

 पाछे अनहित मन कुटिलाई ।।

जाकर चित अहि गति समभाई ।

अस कुमित्र परिहरहिं भलाई।।

अर्थ - जो सामने तो बना - बनाकर मीठे वचन बोलता है  और पीठ पीछे बुराई करता है और मन में कुटिलता रखता है | हे भाई जिसका मान सांप की तरह टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है |


  इन चौपाईयो के माध्यम से तुलसीदास जी कहते हैं कि कुछ लोग ऐसे होते कि आपके सामने तो आपसे मीठा-मीठा बोलेंगे। आपसे अच्छी-अच्छी बाते करेंगे, आपको लगेगा कि यह हमारा हितेषी है,परन्तु यह आपकी पीठ पीछे आपकी ही निंदा करते हैं। आपका बुरा होने की कामना करते हैं। ऐसा मित्र जो आपके सामने तो आपसे चिकनी चुपड़ी बातें करे और आपके पीछे आपके प्रति कुटिलता का भाव रखे। ऐसा व्यक्ति जिसका मन साँप की चाल के समान टेढ़ा हो, ऐसे कुमित्रों से सदैव बचकर रहने में ही भलाई है। 
जीने की कला - इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें इस प्रकार के कुमित्रों की पहचान करके उनका तुरंत त्याग कर देना चाहिए | इसी में हमारी भलाई है |


  जय राम जी की
                         


                पंडित प्रताप भानु शर्मा 

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2021

(49) कर्म के विना कुछ भी प्राप्त नहीं हो सकता

 'सकल पदारथ हैं जग माहीं।

 करमहीन नर पावत नाहीं।


अर्थ - इस दुनिया में सारी वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं लेकिन वे कर्महीन व्यक्ति को कभी नहीं मिलती हैं।

  इसका तात्पर्य  है कि इस संसार में सभी चीजें उपलब्ध हैं परन्तु यह उन्हें ही प्राप्त होती हैं जो कर्म करता है | जो कर्म नहीं करते उन्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होता जैसे भोजन के लिए भी व्यक्ति को कर्म करना पड़ता है, उसे पचाने के लिए भी मेहनत करना पड़ती है | जो व्यक्ति कर्म नहीं करते और केवल भाग्य को ही कोसते रहते हैं, ऐसे व्यक्ति सदैव दुखी ही रहते हैं |
जीने की कला - इससे हमें यह सीख मिलती है कि हमें यदि कुछ हासिल करना है तो उसके लिए कर्म करना ही पड़ेगा | विना कर्म किये कुछ भी हासिल नहीं होगा जिससे हमारा जीवन दुःखमय ही बना रहेगा |

जय राम जी की
                 
                    पंडित प्रताप भानु शर्मा 
        





गुरुवार, 8 अप्रैल 2021

(48)करम प्रधान विस्व करि राखा

 करम प्रधान विस्व करि राखा,

 जो जस करई सो तस फलु चाखा




अर्थ - इस संसार को कर्म प्रधान बना रखा है | जो भी जैसा कर्म करते है उन्हें वैसा ही फल अर्थात परिणाम मिलता है |

 इसका तात्पर्य है कि इस संसार में कर्म ही प्रधान है | जो अच्छे कर्म करते हैं उन्हें परिणाम भी अच्छे ही प्राप्त होते हैं, इसके विपरीत बुरे कर्मों का परिणाम भी बुरा ही प्राप्त होता है | यहाँ अच्छे कर्मों से तात्पर्य है कि जो काम भी आप कर रहे हैं उसको यह विचार करके करना कि कोई है जो हमें देख रहा है | हम जो भी कार्य करें उसे निःस्वार्थ भाव से पूर्ण ईमानदारी पूर्ण निष्ठा के साथ करेंगे तो यह कर्म आपके लिए निश्चित ही अच्छे परिणाम लेकर आएगा | कर्म केवल जीविकोपार्जन का साधन मात्र ही नहीं होना चाहिए| यहाँ कर्म से तात्पर्य आपके परिवार,आपके रिश्तेदार, आपके मित्र, आपका देश, के प्रति कर्तव्यों का पालन करना भी है |

जीने की कला - इससे हमें यह सीखने को मिलता है कि हमारे कर्म ही हमारी पहचान हैँ जो हमें उत्थान की ओर ले जाते हैं इसके विपरीत बुरे कर्म हमें पतन की ओर ले जाते हैं | हमें हमेशा अच्छे कर्म ही करना चाहिए |

जय राम जी की

                  पंडित प्रताप भानु शर्मा 


बुधवार, 7 अप्रैल 2021

(47)कुसंग का त्याग करें

 तुलसी किएं कुंसग थिति, होहिं दाहिने बाम |       कहि सुनि सुकुचिअ सूम खल, रत हरि संकंर नाम । बसि कुसंग चाह सुजनता, ताकी आस निरास ।       तीरथहू को नाम भो, गया मगह के पास ।।

अर्थात – गोस्वामी जी इन चौपाईयो के माध्यम से कहना चाहते हैं कि बुरे लोगों की संगती में रहने से अच्छे लोग भी बदनाम हो जाते हैं. वे अपनी मान प्रतिष्ठा खोकर छोटे हो जाते हैं. ठीक उसी तरह जैसे, किसी व्यक्ति का नाम भले हीं देवी-देवता के नाम पर रखा जाए, लेकिन बुरी संगती के कारण उन्हें वह मान-सम्मान नहीं मिलता है. जब कोई व्यक्ति बुरी संगती में रहने के बावजूद अपनी काम में सफलता पाना चाहता है और मान-सम्मान पाने की इच्छा करता है, तो उसकी इच्छा कभी पूरी नहीं होती है. ठीक वैसे हीं जैसे मगध के पास होने के कारण विष्णुपद तीर्थ का नाम “गया” पड़ गया |

इसका तात्पर्य है कि हमें कुसंग अर्थात बुरे लोगों के साथ नहीं रहना चाहिए यह हमारे और हमारे परिवार के लिए घातक सिद्ध हो सकता है |

जय राम जी क़ी

                         पंडित प्रताप भानु शर्मा 

रविवार, 4 अप्रैल 2021

(46)तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह||








 

          तुलसी तहां न जाइये कंचन बरसे मेह||






अर्थ: जिस जगह आपके जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हों, जहाँ लोगों की आँखों में आपके लिए प्रेम या स्नेह ना हो,  वहाँ हमें कभी नहीं जाना चाहिए, चाहे वहाँ धन की बारिश ही क्यों न हो रही हो|

        इसका तात्पर्य है कि जिस स्थान पर हमारे जाने से लोग प्रसन्न नहीं होते हैं अर्थात हमारी उपेक्षा की जाती है । ऐसे स्थान पर हमें भूलकर भी नहीं जाना चाहिए चाहे उस स्थान पर जाने से कित ना ही लाभ क्यों न हो रहा हो । ऐसी जगह हमारा अनादर हो सकता है जिससे हमारा नुकसान हो सकता है।


जीने की कला- इस दोहे के माध्यम से हमें सीखने को मिलता है कि हमें किस जगह जाना चाहिए उसका विचार पूर्व में करने के उपरान्त  ही जाना उचित है ।अन्यथा इससे हमें हानि हो सकती है ।      
                          

                                                  जय राम जी की

(45)तुलसी तृण जलकूल कौ, निर्बल निपट निकाज

 

तुलसी तृण जलकूल कौ, निर्बल निपट निकाज
कै राखै कै संग चलै, बाँह गहे की लाज









अर्थ -तुलसीदास जी ने इस दोहे में दूबअर्थात घास के गुणों में मानवीयता का अभाष कराया है जैसे दूब अर्थात घास एक कमजोर और किसी काम में न आने वाली होते हुए भी जब संकटग्रस्त प्राणी उसे अपनी रक्षा के लिए पकड़ता है तो निर्बल दूब उसकी रक्षा करती है या टूटकर उसी के साथ चल देती है |
      इस दोहे में गोस्वामी तुलसीदास जी ने दूब अर्थात घास की तुलना एक सच्चे मित्र से करी है | सच्चे मित्र का दायित्व है कि वह अपने मित्र को संकट के समय इसी प्रकार साथ दे जिस प्रकार एक कमजोर घास भी प्राण रक्षक सिद्ध होता है अथवा उसी के साथ अपने को भी मिटाकर चल देता है |

जीने की कला -  इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपनी शरण में आये प्राणी को अपने बल का आंकलन नहीं करते हुए उसकी रक्षा हेतु पूर्ण प्रयास करना चाहिए | यही मानवीय गुणों की पहचान है और मानवता का सही परिचय है |

       जय राम जी की

                             पंडित प्रताप भानु शर्मा 
  

शनिवार, 3 अप्रैल 2021

(44)तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।

 तुलसी जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ। तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।





अर्थ:

दोहे में महाकवि तुलसी दास जी कहते हैं कि जो लोग दूसरों की बुराई कर खुद प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं, वे खुद अपनी प्रतिष्ठा खो देते हैं। वहीं ऐसे व्यक्ति के मुंह पर एक दिन ऐसी कालिख पुतेगी जो कितनी भी कोशिश करे लेकिन मरते दम तक साथ नहीं छोड़ने वाली।

इसका तात्पर्य है कि हमें किसी दूसरे व्यक्ति की प्रतिष्ठा को धूमिल करते हुए अपनी प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए कार्य नहीं करना चाहिए ऐसा करना गलत है और जो ऐसा कार्य करते हैं वह भले ही ऐसा करके अपने मन में प्रसन्न होते रहें परन्तु एक समय अवश्य आएगा जब उनकी प्रतिष्ठा की धज्जियाँ उड़ जावेगी और यह उनके जीवन में हमेशा के लिए कलंक लगा रहेगा |

  इससे हमें यह शिक्षा मिलती है  कि हमें सबकी प्रतिष्ठा का ध्यान रखते हुए कार्य करना चाहिए | इसी में हमारी प्रतिष्ठा है |

जय राम जी की

                     प्रताप भानु शर्मा