सिर भर जाउँ उचित अस मोरा। सब तें सेवक धरमु कठोरा॥ देखि भरत गति सुनि मृदु बानी। सब सेवक गन गरहिं गलानी॥
भावार्थ - मुझे उचित तो ऐसा है कि मैं सिर के बल चलकर जाऊँ। सेवक का धर्म सबसे कठिन होता है। भरतजी की दशा देखकर और कोमल वाणी सुनकर सब सेवकगण ग्लानि के मारे गले जा रहे हैं॥
इसका तात्पर्य है कि सेवक का धर्म सबसे कठोर है क्योंकि सेवक को अपने स्वामी के प्रति समर्पण का भाव होने पर ही सेवा करने की भावना उत्पन्न होती है । सेवा ,समर्पण का ही प्रतिरूप है । सच्चा सेवक वह है जो केवल अपने स्वामी के प्रति समर्पित हो । स्वामी की इच्छा में ही उसकी इच्छा हो । उसको अपनी इच्छाओं का त्याग करना पड़ता है अतः यह सर्वथा उचित है कि सेवक का धर्म सबसे कठोर है । सेवा के अंतर्गत लोक सेवा भी आती है जिसमें सभी नेतागण सम्मिलित हैं यदि वह भी भरत जी को अपना आदर्श बनाकर जन सेवा करते हैं तब उनका नाम इस लोक में सदैव याद किया जाएगा ।
जीने की कला= इस चौपाई के माध्यम से गोस्वामी जी ने सेवक के धर्म को कठोर बताया है परंतु हमारे जीवन में सेवा भाव होना अति आवश्यक है यही भाव मनुष्य होने को यथार्थ सिद्ध करता है।
जय रामजी की
पंडित प्रताप भानु शर्मा