(४२ ) दुसरो की उन्नति से प्रसन्न होना चाहिए
जग बहू नर सर सरि सम भाई । जे निज बाढहिं बढ़हिं जल पाई॥ सज्जन सकृत सिन्धु सम कोई । देखी पुर बिधु बाढ़ई जोई ।
जगत में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही अधिक है जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं अर्थात अपनी ही उन्नति से प्रसन्न होते हैं . समुद्र के समान एक बिरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देख कर उमड़ पड़ता है ...
इसका तात्पर्य है कि मनुष्य में ऐसी प्रवृत्ति होती है कि वे केवल अपनी ही उन्नति चाहते हैं और उन्नति प्राप्त कर स्वयं ही प्रसन्न होते हैं अर्थात प्रत्येक मनुष्य केवल स्वयं की उन्नति ही चाहता है, उसे दूसरे की उन्नति से कोई मतलब नहीं रहता। गोस्वामी जी कहते हैं कि इस संसार में ऐसे कुछ ही बिरले सज्जन व्यक्ति होते हैं जो दूसरों की उन्नति चाहते हैं एवं दूसरों की उन्नति से प्रसन्ना होते हैं। अतः हमें इस प्रकार के कार्य करना चाहिए कि हमारे साथ दूसरे व्यक्तियों की उन्नति भी हो उसी से हम सदैव प्रसन्नता का अनुभव करें।