शनिवार, 20 अक्तूबर 2018


    (३४ ) पर हित सरिस धर्म नहिं भाई  



                   पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥                                               निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर।

भावार्थ- भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है।हमें हे तात! समस्त पुराणों एवं वेदों  का यह निर्णय  मैंने तुमसे कहा है, इस बात को पण्डित अर्थात ज्ञानी लोग जानते हैं॥

     इसका तात्पर्य है कि परहित अर्थात परोपकार (पर+उपकार) दूसरों के लिए समर्पित भावना से भलाई का कार्य करना ही सबसे बड़ा धर्म है।  परम पिता परमात्मा द्वारा रचित यह प्रकृति भी हमें यही सन्देश देती है।

        परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः परोपकाराय वहन्ति नद्यः ।

         परोपकाराय दुहन्ति गावः परोपकारार्थमिदं शरीरम् ॥

   परोपकार के लिए बृक्ष फल देते हैं, परोपकार के लिए नदी वहती है, परोपकार के लिए गाय दूध देती है , परोपकार के लिए ही हमें यह शरीर प्राप्त  हुआ  है। 

इसके विपरीत दूसरों को कष्ट पहुँचाने के समानं कोई पाप अर्थात नीच कार्य नहीं है।  हमें मन ,वचन, कर्म से दूसरों को कष्ट नहीं पहुँचाना चाहिए क्योंकि इससे बड़ा अधर्म का कार्य दूसरा नहीं है। 

  अतः हमें  निःस्वार्थ भावना के साथ सदैव परोपकार के कार्य करते रहना चाहिए।


                                        जय राम जी की 



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