संत असंतन्हि कै असि करनी।
जिमि कुठार चंदन आचरनी॥
काटइ परसु मलय सुनु भाई।
निज गुन देइ सुगंध बसाई॥
ताते सुर सीसन्ह चढ़त,
जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत घनहिं,
परसु बदन यह दंड॥
अर्थ=संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चंदन का आचरण होता है। हे भाई! सुनो, कुल्हाड़ी चंदन को काटती है (क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है), किंतु चंदन अपने स्वभाववश अपना गुण देकर उसे (काटने वाली कुल्हाड़ी को) सुगंध से सुवासित कर देता है।
इसी गुण के कारण चंदन देवताओं के सिरों पर चढ़ता है और जगत् का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी के मुख को यह दंड मिलता है कि उसको आग में जलाकर फिर घन से पीटते है।
इन चौपाइयों में गोस्वामी जी ने संत स्वभाव के व्यक्ति की तुलना चंदन से और असंत की तुलना कुल्हाड़ी से करी है जिस प्रकार असंत व्यक्ति संत व्यक्ति को परेशान करने का प्रयास करता है तब संत स्वभाव व्यक्ति अपने स्वभाव वश असंत को भी महका देते हैं जबकि असंत व्यक्ति को स्वभाव अनुसार दंड मिलना निश्चित है ।
जीने की कला= श्री राम चरित मानस की इन चौपाइयों के माध्यम से सीख मिलती है कि हमें अपने निज संत स्वभाव में रहकर सभी को महकाते हुए असंत को भी संत बनाने का प्रयास करना चाहिए ।
जय राम जी की
पंडित प्रताप भानु शर्मा
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