(८) स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं
सुर नर मुनि सब कै यह रीति। स्वारथ लागि करहिं सब प्रीति।
अर्थात देवता,मनुष्य,और मुनि सबकी यह रीति है कि स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं। स्वार्थ का अर्थ है स्व + अर्थ = स्वयं का भला करना। स्वार्थ दो प्रकार का होता है (१) किसी को लाभ पहुँचाते हुए स्वार्थ की पूर्ती करना (२) किसी को हानि पहुँचाते हुए स्वार्थ की पूर्ती करना। इसमें प्रथम प्रकार का स्वार्थ उच्च कोटि का है जबकि दूसरे प्रकार का स्वार्थ निकृष्ट श्रेणी में आता है। एक विद्वान का कथन है कि " जो अन्य को हानि पहुँचाकर अपना हित चाहता है वह मूर्ख अपने लिए दुःख के बीज बोता है। " स्वार्थी सब हैं , यह मनुष्य का गुण है। यदि स्वार्थ नहीं होगा तो कर्म भी नहीँ होगा इससे हम कर्महीन हो जायेंगे। हमें यही ध्यान रखना है कि हमारे स्वार्थ में किसी का अहित न होने पाए। केवल वह परम पिता परमात्मा ही एक है जो हमसे निस्वार्थ प्रेम करता है एवं हम सब पर निःस्वार्थ भाव से अपनी कृपा बरसाता रहता है।
जय राम जी की
जय श्री राम
जवाब देंहटाएंJai shree ram
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