- भावार्थ- तब महादेव ने हँसकर कहा - न कोई ज्ञानी है न मूर्ख। रघुनाथ जब जिसको जैसा करते हैं, वह उसी क्षण वैसा ही हो जाता है॥
- इसका तात्पर्य है कि कोई भी मनुष्य न ज्ञानी है और न ही मूर्ख है, ज्ञानी व्यक्ति भी किसी समय में मूर्खता कर बैठते हैं जिससे उनका जीवन ही संकटग्रस्त हो जाता है। जबकि मूर्ख व्यक्ति भी कभी इतना ज्ञानी हो जाता है कि उचित निर्णय लेकर अपना जीवन सुखमय बना लेता है। आज के परिवेश में भी इस प्रकार के व्यक्ति देखने को मिलते हैं जो चतुर विद्वान व्यक्ति भी ऐसी भूल कर बैठता है जिससे उसे जीवन भर पछतावा होता है, वह स्वयं भी नहीं समझ पाता कि उससे इस प्रकार की मूर्खता पूर्ण कार्य कैसे हो गया। इसी प्रकार कोई व्यक्ति मूर्ख समझना भी सही नहीं है, क्योंकि इस प्रकार के व्यक्ति कभी भी विद्वान के रूप में व्यवहार कर उचित निर्णय के उपरांत आनंदमय जीवन व्यतीत करते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति के ज्ञानी अथवा मूर्ख होने की स्थिति सदैव एक समान नहीं रहती, वह किसी भी छण ज्ञानी अथवा मूर्ख की भांति व्यवहार कर सकता है, जो कि उसके कर्म अनुसार ईश्वर के संचालन नियम के अंतर्गत परिवर्तन चलता रहता है।
- जय राम जी की
- पंडित प्रताप भानु शर्मा
- जय राम जी की
- पं प्रताप भानु शर्मा
बुधवार, 29 अगस्त 2018
शनिवार, 18 अगस्त 2018
(१९) ऊंच निवासु नीच करतूति, देखि न सकहि पराई विभूति
आज के सामाजिक परिवेश में ऊंचे पद पर आसीन व्यक्ति भी इस प्रकार के कार्य करते हैं जो उनके पद के अनुरूप नहीं होते एवं वे भी अन्य व्यक्तियों की प्रसिद्धि से ईर्ष्या करते हैं। परन्तु उन्हें इस प्रकार के कृत्य करने के पूर्व निज स्वार्थ को त्यागकर लोकहित तथा परोपकार के बारे में विचार करना चाहिए तभी यह चौपाई सार्थक सिद्ध होगी ।
जय राम जी की
प्रताप भानु शर्मा
शुक्रवार, 17 अगस्त 2018
ईस भजनु सारथी सुजाना। बिरति चर्म संतोष कृपाना ॥
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा। बर बिग्यान कठिन कोदंडा॥ |
ईश्वर का भजन ही (उस रथ को चलाने वाला) चतुर सारथी है। वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार है। दान फरसा है, बुद्धि प्रचण्ड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है॥
अमल अचल मन त्रोन समाना। सम जम नियम सिलीमुख नाना॥
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा। एहि सम बिजय उपाय न दूजा ॥ |
निर्मल (पापरहित) और अचल (स्थिर) मन तरकस के समान है। शम (मन का वश में होना), (अहिंसादि) यम और (शौचादि) नियम- ये बहुत से बाण हैं। ब्राह्मणों और गुरु का पूजन अभेद्य कवच है। इसके समान विजय का दूसरा उपाय नहीं है॥
इसका तात्पर्य है कि जो मनुष्य रामचरित मानस में बताये गए गुण रुपी रथ को धारण करता है, उसे कोई भी शत्रु पराजित नहीं कर सकता। वह अजेय है।
गोस्वामी तुलसीदास जी की जयंती पर शुभकामना।
जय राम जी की ( प्रताप भानु शर्मा )
बुधवार, 15 अगस्त 2018
(१७) इन चारों की बात बिना सोच विचार के मानना चाहिए
* मातु पिता गुर प्रभु कै बानी ।
बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ll
भावार्थ:-माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए।
इसका तात्पर्य है कि माता,पिता,गुरु, और स्वामी इन चारों की बात बिना सोच विचार अर्थात किसी भी तर्क के बिना मानना चाहिए, क्योकि ये हमारे परम हितेषी होते हैं। माता-पिता प्रथम गुरु हैं जिनकी शिक्षा हमारे जीवन को सुसंस्कृत बनाती है। इसके उपरांत गुरु की शिक्षा से हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त सबसे महत्वपूर्ण हैं स्वामी अर्थात हमारी आत्मा, जो कि परमात्मा का ही एक अंश है। अतः हमारी अंतरात्मा की आवाज को सुनकर बिना बिचार किये उसके अनुसार कार्य करना चाहिए।
अतः इस चौपाई के माध्यम से यही सन्देश प्राप्त होता है कि इन चारों की बात बिना किसी तर्क के मान लेने पर हमारा अहित नहीं हो सकता। इनके अतिरिक्त की स्थिति का बर्णन कविराज गिरिधर द्वारा इस प्रकार किया है।
बिना विचारे जो करै , सो पाछे पछताये।
काम बिगारै आपनो , जग में होत हंसाय।
अर्थात बिना सोच विचार कर किये गए कार्य को करने के उपरांत परिणाम अनुकूल प्राप्त ना होने पर हमें पश्चाताप होता है, जिससे हमारी कीर्ति धूमिल होती है। अतः इन चार की बातों के अतिरिक्त सभी की बातों को सोच समझकर विचार करने के उपरांत ही कार्यान्वित रूप देना चाहिए।
जय राम जी की
(प्रताप भानु शर्मा)
शनिवार, 11 अगस्त 2018
(१६) सभी को अपने कर्म के अनुसार ही सुख अथवा दुःख प्राप्त होता है।
काहु न कोऊ सुख दुख कर दाता।
निज कृत करम भोग सबु भ्राता।
अर्थात - कोई किसी को सुख दुःख का देने वाला नहीं है। सब अपने ही किये हुए कर्मों का फल भोगते हैं।
इसका तात्पर्य है कि कोई भी किसी को सुख अथवा दुःख नहीं पहुंचा सकता है। यह हमारा मानसिक भ्रम ही है , जो हम किसी को दुःख पहुँचाने का कारण मानकर उससे द्वेषपूर्ण व्यवहार करते हैं अथवा सुख पहुँचाने के कारण उससे मोह करते हैं। सुख-दुःख केवल हमारे द्वारा किये गए कर्मों पर ही निर्भर हैं। यदि हमारे कर्म में पारदर्शिता है तो वे कर्म हमारे लिए सुख पहुँचाने वाले सिद्ध होंगे, जबकि जिन कर्मो में दुराव होता है वे कर्म सदैव दुःख देने वाले ही होते हैं।
अतः इस चौपाई के माध्यम से यही सन्देश प्राप्त होता है कि यदि किसी से दुःख प्राप्त हो तो उसे दोषी मानकर उसके प्रति की जाने वाली कार्यवाही के पूर्व एक बार सोचना चाहिए कि वह स्वयं इसके लिए कितना जिम्मेदार है। इस प्रकार उसके मन में आने वाली कटुता की भावना को कम किया जा सकता है एवं स्वयं में सुधार लाकर समाज को भी सुधारा जा सकता है।
जय राम जी की
पं. प्रताप भानु शर्मा
मंगलवार, 7 अगस्त 2018
(१५) अपनी पहचान अपने कर्म से होती है ।
सूर समर करनी करहिं न जनावहिं आपु।
बिध्यमान रन पाई रिपु कायर कथहि प्रतापु।।
अर्थात - शूरवीर तो युद्ध में शूरवीरता का ही कार्य करते हैं , वे स्वयं कहकर अपने आपको नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पा कर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं।
इसका तात्पर्य है कि हमारे द्वारा किये गए कर्म ही हमारी पहचान बनाते हैं। इसके लिए हमें स्वयं कहने की आवश्यकता नहीं रहती कि हमने ऐसा काम किया है। हमारे द्वारा किये गए सत्कर्म ही हमारे जीवन में यश कीर्ति को अपने आप प्रकाशित कर देते हैं। इसके विपरीत जो व्यक्ति अपने मुँह से अपने यश का बखान करते हैं , वे स्वयं को शूरवीर समझते हैं परन्तु यथार्थ में वे कायर की श्रेणी में ही आते हैं।
अतः हमें सुकर्म करते रहना है , यही हमारी पहचान बनाएंगे।
जय राम जी की
रविवार, 5 अगस्त 2018
(१४) मित्रता की परिभाषा
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ।। निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ।।
अर्थात- जो मनुष्य मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते , उन्हें देखने से घोर पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान एवं मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु पर्वत के समान जानें।
श्री रामचरित मानस में गोस्वामी जी , मित्रता को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि सच्चा मित्र वह है जो अपने दुःख को कम और अपने मित्र के दुःख को भारी समझ कर उसके दुःख में साथ देता है। जो मित्र अपने मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते, उनका मुँह भी नहीं देखना चाहिए।
जिन्ह के असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ।।
अर्थात -जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है , वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणो को छिपावे।
इसका तात्पर्य है कि मित्र का धर्म है की वह गलत मार्ग पर चलने वाले मित्र को सही राह दिखावे एवं अन्य व्यक्तियों के समक्ष उसके गुणों को ही बतावे, उसके अवगुणों को प्रकट न करे।
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल बचन बोलता है और पीठ पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई इस प्रकार जिसका मन सांप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है।
अतः गोस्वामीजी के अनुसार हमें मित्रता के धर्म,कर्त्तव्य का बोध होता है। साथ ही सच्चे मित्र की पहचान करने में सहयोगी है, जो हमारे जीवन जीने की राह के लिए अत्यंत उपयोगी है।
सभी मित्रो को प्रताप भानु शर्मा की ओर से जय राम जी की
मित्रता दिवस की शुभकामनाएं
शनिवार, 4 अगस्त 2018
(१३) कपटी मित्रों से साबधान
मार खोज लै सौंह करि , करि मत लाज न ग्रास।
मुए नीच ते मीच बिनु , जे इनके विश्वास।।
अर्थात वह निर्बुद्धि मनुष्य ही कपटियों और ढोंगियों का शिकार होते हैं। ऐसे कपटी लोग शपथ लेकर मित्र बनते हैं और फिर मौका मिलते ही वार करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को न ही भगवान् का भय होता है और न ही समाज का भय। गोस्वामी जी कहते हैं कि ऐसे व्यक्तियों से बचना चाहिए।
आज के सामाजिक परिवेश में हमें इस प्रकार के व्यक्ति बहुतायत मिलते हैं, जो केवल निज स्वार्थ पूर्ती के लिए ही मित्रता करते हैं। वे कपटी व्यक्ति सदैव मित्रता निभाने की सौगंध लेते हैं, एवं मित्र होने का दिखावा करते हैं। ऐसे व्यक्तियों का स्वाभिमान नहीं होता, उन्हें समाज का भय नहीं होता। ऐसे व्यक्ति अवसर पाकर आपको हानि पहुंचा सकते हैं। अतः इस प्रकार के व्यक्तियों को पहचान कर उनसे बचना चाहिए इसी में बुुद्धिमानी है ।
जय राम जी की
शुक्रवार, 3 अगस्त 2018
(12) किसी की निंदा न करें
तुलसी जे कीरति चहहिं , पर की कीरति खोई।
तिनके मुंह मसि लागहैं , मिटिहि न मरिहै धोई।।
अर्थात तुलसी दासजी कहते हैं कि जो मनुष्य दूसरों की निंदा कर स्वयं की प्रतिष्ठा पाना चाहते हैं वे स्वयं की प्रतिष्ठा खो देते हैं। गोस्वामी जी कहते हैं कि ऐसे व्यक्ति के मुंह पर ऐसी कालिख पुतेगी जो सभी प्रकार के प्रयासों के उपरांत भी नहीं मिटेगी।
आज के परिवेश में भी इस प्रकार के व्यक्ति देखे जाते हैं जो अपनी प्रतिष्ठा के लिए दूसरों की निंदा करते हैं एवं स्वयं गुणहीन होने पर भी अहंकार से भरे रहते हैं और अन्य को हेय दृष्टि से देखते हैं। परन्तु वे भूल जाते हैं कि इस प्रकार के कृत्य उनकी प्रतिष्ठा मेँ बृद्धि नहीं अपितु उनकी प्रतिष्ठा को सदैव के लिए समाप्त कर, इस प्रकार से अपमानित करते हैं कि वे चाहे कितने भी प्रयास कर लें उन्हें वह सम्मान पुनः प्राप्त नहीँ हो सकता।
अतः यदि हम अपनी प्रतिष्ठा, यश, को बनाये रखना चाहते हैं तो हमें निंदा करने एवं सुनने से बचना चाहिए।
जय राम जी की
गुरुवार, 2 अगस्त 2018
(११) सुंदरता का धोखा
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर नर सुंदर केकेहि पेखु बचन सुधा सम असन अहि।
अर्थात गोस्वामीजी कहते हैं कि सुंदर वेष देखकर न केवल मूर्ख अपितु चतुर मनुष्य भी धोखा खा जाते हैं। जिस प्रकार सुंदर मोर के वचन अमृत के समान मधुर हैं परन्तु उसका आहार सांप है। इसका तात्पर्य है कि यह आवश्यक नहीं है कि बाहर से दिखाई देने वाली सुंदरता के पीछे भी सुंदरता ही है। बाहर की सुंदरता आपको धोखा दे सकती है। अतः आपको इस प्रकार की सुंदरता से सावधान रहने की आवश्यकता है । सुंदरता के आवरण को देखकर मूर्ख मनुष्य धोखे में आकर अपना सब कुछ नष्ट कर देते हैं साथ ही चतुर बुद्धिमान मनुष्य भी सुंदरता के जाल में फंसकर जीवन नर्क बना लेते हैं। ऐसा आवश्यक नहीं है कि सुंदरता सदैव धोखा देती है, परन्तु उसकी पहचान गुणों के माध्यम से करने के पश्चात ही हम इस धोखे से बच सकते हैं। जय राम जी की
बुधवार, 1 अगस्त 2018
(१०)सदैव नीतिगत बात ही करें।
सचिव बैद गुरु तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस |
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास ||
अर्थ। : गोस्वामीजी कहते हैं कि मंत्री, वैद्य और गुरु —ये तीन यदि भय या लाभ की आशा से (हित की बात न कहकर ) प्रिय बोलते हैं तो (क्रमशः ) राज्य,शरीर एवं धर्म – इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है। इसका तात्पर्य है कि यदि भय अथवा लाभ की आशा से मंत्री, राजा को उचित सलाह नहीं देता तो राज का विनाश निश्चित है, इसी प्रकार चिकित्सक यदि रोगी व्यक्ति से उसकी बीमारी के बारे में सही नहीं बताता तो उसका विनाश निश्चित है, इसी प्रकार यदि गुरु , स्वयं के लाभ की आशा अथवा भय से प्रिय बोलकर गलत को भी सही बताते हैं तो समझना चाहिए की हमारा धर्मं नष्ट होने की कगार पर है। अतः इन तीनों के प्रिय वादन पर ध्यान देना आवश्यक है। आज के परिवेश में इन तीनों प्रकार के व्यक्तियों से हम इनकी प्रियवादिता पर संदेह करते हुए सत्यता को उजागर करने का प्रयत्न कर , होने वाली हानि से बच सकते हैं।
जय राम जी की
सदस्यता लें
संदेश (Atom)