(१४) मित्रता की परिभाषा
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी ।। निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना ।।
अर्थात- जो मनुष्य मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते , उन्हें देखने से घोर पाप लगता है। अपने पर्वत के समान दुःख को धूल के समान एवं मित्र के धूल के समान दुःख को सुमेरु पर्वत के समान जानें।
श्री रामचरित मानस में गोस्वामी जी , मित्रता को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि सच्चा मित्र वह है जो अपने दुःख को कम और अपने मित्र के दुःख को भारी समझ कर उसके दुःख में साथ देता है। जो मित्र अपने मित्र के दुःख से दुखी नहीं होते, उनका मुँह भी नहीं देखना चाहिए।
जिन्ह के असि मति सहज न आई। ते सठ कत हठि करत मिताई।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा। गुन प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा ।।
अर्थात -जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है , वे मूर्ख हठ करके क्यों किसी से मित्रता करते हैं ? मित्र का धर्म है कि वह मित्र को बुरे मार्ग से रोककर अच्छे मार्ग पर चलावे। उसके गुण प्रकट करे और अवगुणो को छिपावे।
इसका तात्पर्य है कि मित्र का धर्म है की वह गलत मार्ग पर चलने वाले मित्र को सही राह दिखावे एवं अन्य व्यक्तियों के समक्ष उसके गुणों को ही बतावे, उसके अवगुणों को प्रकट न करे।
आगें कह मृदु बचन बनाई। पाछें अनहित मन कुटिलाई।
जाकर चित अहि गति सम भाई। अस कुमित्र परिहरेहिं भलाई।
जो सामने तो बना-बनाकर कोमल बचन बोलता है और पीठ पीछे बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है- हे भाई इस प्रकार जिसका मन सांप की चाल के समान टेढ़ा है, ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है।
अतः गोस्वामीजी के अनुसार हमें मित्रता के धर्म,कर्त्तव्य का बोध होता है। साथ ही सच्चे मित्र की पहचान करने में सहयोगी है, जो हमारे जीवन जीने की राह के लिए अत्यंत उपयोगी है।
सभी मित्रो को प्रताप भानु शर्मा की ओर से जय राम जी की
मित्रता दिवस की शुभकामनाएं
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें